आखिर क्या होती है पुलिस की खात्मा रिपोर्ट, जानिए कोर्ट के विशेषज्ञ से

Advocate Dimkar Dubey

पटना (दिनकर दूबे/ द न्यूज़)। हम देखते हैं कि कई मामलों में पुलिस खात्मा रिपोर्ट पेश करती है। आखिर क्या है यह खात्मा रिपोर्ट और वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जब पुलिस खात्मा रिपोर्ट पेश करती है। दंड प्रकिया सहिंता की धारा 154 के अंतर्गत पुलिस को किसी संज्ञेय अपराध के मामले प्रथम इत्तिला रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ करने के अधिकार दिए गए हैं। जब किसी मामले में एफआईआर थाने में दर्ज हो जाती है और मामले के अन्वेषण के दौरान अन्वेषणकर्ता अधिकारी को विवेचन मामले में इतना पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिलता है, जितने में मामले में न्यायालय के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष चालान (अंतिम प्रतिवेदन) धारा 173 दंड प्रकिया सहिंता के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा सके तो ऐसे मामले में पुलिस खात्मा रिपोर्ट लगाती है। Also Read – प्रवासी मजदूरों के मामलेः सुप्रीम कोर्ट ने नए मापदंड गढ़ने का मौका गंवाया खात्मा का उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 169 में किया गया है। इस धारा के अंतर्गत- “यदि इस अध्याय के अधीन अन्वेषण पर पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को प्रतीत होता है कि पर्याप्त साक्ष्य संदेह का उचित आधार नहीं है, जिससे अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास भेजना न्यायनुमत है तो ऐसा अधिकारी उस दशा में जिसमें व्यक्ति अभिरक्षा में है, उसके द्वारा प्रतिभूति के सहित और रहित जैसा ऐसा अधिकारी निर्दिष्ट करें या बंधपत्र निष्पादित करने पर उसे छोड़ देगा कि यदि जब अपेक्षा की जाए तो और तब वह ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होगा जो पुलिस रिपोर्ट पर ऐसे अपराध का संज्ञान करने के लिए उसका विचार करने के लिए उसे विचार करने के लिए सशक्त है।” Also Read – भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का स्तर तेजी से नीचे गिर रहा हैः अमेरिकी वॉचडॉग USCIRF ने अपनी वार्ष‌िक रिपोर्ट में कहा जब साक्ष्य अपर्याप्त हो तो पुलिस संबंधित प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट के यहां मामला प्रस्तुत किया जाता है। मजिस्ट्रेट के न्यायालय में संबंधित मामले के फरियादी को भी पेश किया जाता है। उसके बयान होने के पश्चात ही मामले में अंतिम मंजूरी होती है। जब तक न्यायालय को मंजूरी नहीं मिलती है तब तक खात्मा नहीं होता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश अनुसार न्यायालय खात्मे के अंतिम मंजूरी तब तक नहीं दे सकती जब तक कि फरियादी या पीड़ित को सुना नहीं जाए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शौकत अली बनाम राज्य के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि पुलिस द्वारा किसी प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के आधार पर धारा 169 के अंतर्गत अंतिम रिपोर्ट पेश कर दी गई है। पुलिस रिपोर्ट की वैधता को पिटीशनर द्वारा चुनौती दी जाती है तो मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 190 के अधीन अपराध का संज्ञान करके धारा 200 के अंतर्गत कार्यवाही किए बिना धारा 202 के अधीन पुलिस को पुनः अन्वेषण करने के निर्देश दे सकता है। ऐसी स्थिति में प्रथम सूचना रिपोर्ट को खारिज किया जाना न्यायोचित नहीं होगा तथा मजिस्ट्रेट से अपेक्षित है कि वह अंतिम रिपोर्ट की चुनौती देने वाली पिटिशन को परिवाद द्वारा दायर किया गया परिवाद मानते हुए परिवादी का शपथ पत्र पर कथन रिकॉर्ड करें तथा उसके साक्षियों के बयान भी शपथ पत्र पर अभिलिखित करें। भगवंत सिंह बनाम पुलिस कमिश्नर के मामले में या निर्धारित किया गया है कि किसी भी पीड़ित पक्षकार को सुने बगैर किसी भी मामले में किसी भी प्रकरण में पुलिस द्वारा खात्मा रिपोर्ट मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जा सकती। जब किसी मामले में एफआईआर ही झूठी हो अर्थात जिस घटना की रिपोर्ट पीड़ित व्यक्ति ने संबंधित थाने में की है, वह प्रथम दृष्टया की झूठी हो तो उस मामले में पुलिस खारिजी लगाती है। जैसे उदाहरण स्वरूप किसी व्यक्ति ने थाने में रिपोर्ट की है कि किसी व्यक्ति मेरे घर में घुस कर मुझे चाकू मारे ,जिस व्यक्ति पर चाकू मारने का आरोप है वह उस समय विदेश में रह रहा है तो मामले में प्राथमिक रूप से ही रिपोर्ट झूठी आभास हो रही है। ऐसे मामले में पुलिस खारिजी लगाती है। खारिजी का उल्लेख दंड प्रक्रिया संहिता में कहीं नहीं है अपितु इसका उल्लेख मध्य प्रदेश पुलिस रेगुलेशन एक्ट नियम 728 में है और अलग अलग राज्यों के अलग अलग पुलिस मैनुअल में इसका उल्लेख है। खारिजी रिपोर्ट जिले के वरिष्ठ मजिस्ट्रेट चीफ ज्यूडिशल मजिस्ट्रेट (मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी)के यहां ही केवल प्रस्तुत की जाती है। खात्मा और खारिजी में अंतर- * खात्मा मामले में साक्षी के अपर्याप्त होने पर लगाया जाता है जबकि खारिजी मामले की झूठी रिपोर्ट साबित होने पर लगाई जाती है। * खात्मे को संबंधित किसी प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट के यहां प्रस्तुत किया जा सकता है पर खारिजी को सुनने का अधिकार जिले के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी को ही है। * खात्मा रिपोर्ट की न्यायालय से अंतिम मंजूरी के पूर्व न्यायालय को फरियादी या पीड़ित व्यक्ति को सुना जाना आवश्यक है, किंतु खारिजी में न्यायालय को फरियादी और पीड़ित व्यक्ति को सुना जाना आवश्यक नहीं। * खात्मा वाले मामले में पुलिस फरियादी पीड़ित व्यक्ति के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 182 और 211 के अंतर्गत मिथ्या रिपोर्ट करने झूठा साक्ष्य देने का आरोप लगाकर प्रथम न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत नहीं कर सकती है पर खारिजी के मामले में पुलिस दंड संहिता की धारा 182 और 211 के अंतर्गत रिपोर्टकर्ता के विरुद्ध संबंधित न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत कर सकती है। * खात्मा के मामले में प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट की न्यायालय के आदेश के विरुद्ध संबंधित पीड़ित व्यक्ति अपील प्रस्तुत कर सकता है, जबकि खारिजी में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के आदेश के विरुद्ध अपील ना होकर रिवीजन होती है। * जब किसी मामले में विवेचना के दौरान साक्ष्य पर्याप्त होते है तो उस मामले को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 170 के अनुसार संबंधित मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया जाता है। अन्वेषण समाप्त हो जाने पर पुलिस अधिकारियों से मामले को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 173 (2) के अनुसार न्यायालय में चालान अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत कर देता हैं ।. दिनकर कुमार दुबे ( लेखक दिनकर दूबे हैं अधिवक्ता पटना हाईकोर्ट)